Saturday, April 24, 2021

नवगीत मेरी दृष्टि में

 

          साठ के दशक में हिन्दी साहित्य में जब कविता के बरक्स  'नयी कविता' का आंदोलन चला, जिसमें लिजलिजी भावुकताओं, रूमानी कल्पनाओं के स्थान पर दबे-कुचले मानव की मुक्ति संबधित विचारों के पोषण की बात की गयी, तब छांदस-कविता में भी कथ्य को हृदय से मस्तिष्क की ओर ले चलने की बात उठी, जिसकी अगुवाई गीतों ने की। पारंपरिक गीतों से अलग इन गीतों की संज्ञा अगीत, प्रगीत, जनगीत, अनुगीत जैसे नामों से विचरते हुए राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा संपादित  'गीतांगिनी' के सन् 1958 में प्रकाशनोपरान्त ' नवगीत' नाम से सर्वस्वीकृत व सर्वप्रिय हो गयी। जिस प्रकार कविता को नयी कविता कहकर उसे एक नयी पहचान दी गयी थी, उसी प्रकार गीतों को भी आधुनिक समय-सापेक्ष विचारों से लैस रखने का आग्रह रखा गया और नवगीत का नव प्रत्यय इन प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करने में सर्वथा समर्थ पाया गया। नव शब्द की एक विशेषता यह भी है कि हर युग में परिवर्तन के नवीन आयामों को इस शब्द में समेटा जा सकता है। इस नवगीत आंदोलन से नयी कविता के पैरोकारों को एक जवाब भी दिया गया जो स्वयं छन्द लिखने में असमर्थ होने के कारण गीतों पर आधुनिक समय की विसंगतियों-विद्रूपताओं को व्यक्त कर पाने में असमर्थ होने का आरोप लगाते थे एवं भारतीयता की अवहेलना कर केवल आयातित बौद्धिकता के सहारे अपना व्यापार चलाने का प्रयत्न कर रहे थे।
          
         नवगीत वस्तुत: संवेदनात्मक ज्ञान के स्थान पर ज्ञानात्मक संवेदना का पक्षधर है। वरिष्ठ समालोचक नचिकेता के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि ' गीतों की वैचारिक यात्रा ही नवगीत है'। अग्रगण्य नवगीत-कवि देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी नवगीत की इसी प्रवृत्ति की ओर संकेत करती हैं।

स्वप्नजीवी गीत
सत्यंवद हुए,
आत्मने पद थे
परस्मैपद हुए।

संक्षेप में नवगीत को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं। "गीत के धरातल पर खड़ी वह रचना, जो अपनी समय-सापेक्ष नवता (वैचारिक, भाषायिक व शैल्पिक) से संपृक्त हो तथा संक्षिप्ति, अन्विति व बिम्बधर्मिता का सम्यक निर्वहन करती हो,  नवगीत है"।

पाश्चात्य-समालोचक थियोडोर अडोर्नो का कथन है ' गीत मानव-सभ्यता की धूप घड़ी है।' कहने का तात्पर्य यही है कि गीत मानव-सभ्यता के साथ-साथ पली-पुसी विधा है। मानव की विकास-यात्रा में गीत भी साथ-साथ चलते रहे हैं। भारतीय परंपरा की बात करें तो हम पायेंगे कि  शिशु-जन्म से लेकर मुण्डन-छेदन आदि प्रत्येक अवसर  के गीत  हमारे लोक जीवन में आदिकाल से पाये जाते हैं। ऋतु आधारित गीत भी जनमन में एक युग से बसे हुए हैं। बड़ी बात यह है कि फिल्मी ग्लैमर के इस चकाचौंध भरे वर्तमान समय में भी ये गीत प्रासंगिक व लोकप्रिय बने हुए हैं। सोहर, कजरी, चैता, बन्ना-गौना आदि इसके सम्पन्न उदाहरण हैं।
    नवगीत आधुनिक विचारों से लबरेज अवश्य है पर उसकी जड़ें गहराई से भारतीयता से जुड़ी हुई हैं। नवगीत भारतीय संस्कृति का विरोधी नहीं है, वरन् वह इसी से अपना खाद-पानी ग्रहण करता है। यही वह विधा है जो भारतीय छंद-परंपरा को आत्मसात कर आगे बढ़ती है और जो भारतीय जन मन के सरोकारों को सम्पूर्ण अपनत्व के साथ अभिव्यक्त कर सकने के साथ वैश्विक सन्दर्भों को भी एक मानवीय दृष्टि प्रदान करने में सक्षम है। भारतीयता व भारतीय दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति नवगीत में ही संभव है क्योंकि यही वह विधा है जिसके पास आधुनिक-वैज्ञानिक सोच के साथ तरल, प्रयोगशील समर्थ पारम्परिक छांदस कलेवर भी है।
          घर-परिवार, खेत-खलिहान, आपसी संबन्ध,  सामाजिक सरोकार, राष्ट्रीय-अन्तरर्राष्ट्रीय परिघटनाएँ व विसंगतियाँ सदैव एक उत्प्रेरक का कार्य करती हैं। यही परिप्रेक्ष्य मेरे भीतर के नवगीतकार को नवगीत-सृजन हेतु बाध्य करते रहे हैं।
          नवगीत अपने समय के प्रति सर्वाधिक सजग व निष्ठावान होने के कारण ही हिन्दी कविता की सबसे जीवन्त विधा बन सकी है। जिस प्रकार नवगीत ठेठ गाँव-देहातों के अन्तर्मन तक अपना प्रसार करने में सफल हुआ है,  पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि आने वाला दौर नवगीत का है। प्रख्यात नवगीतकार केदारनाथ अग्रवाल ने कभी कहा ही था।

इसी जन्म में, इस जीवन में,
हमको तुमको मान मिलेगा।
गीतों की खेती करने को,
पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा।

-रविशंकर मिश्र

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