Saturday, April 24, 2021

शकील प्रेम

 

Shakeel Prem ji की एक बेहतरीन कविता।

ऐ मुसलमानों
आज तुम इतने लाचार हो
जरा सोचो
आज के हालात के लिए
तुम खुद भी जिम्मेदार हो

तुम्हे सही और गलत का ज्ञान नही
तुम्हे दुश्मन और दोस्त की
पहचान नही
दुनिया अक्ल के रास्ते आगे बढ़ती रही
तुम अपने नकली कायदों में चूर रहे
दीनी अक़ीदों में मस्त होकर
दुनियावी हकीकतों से दूर रहे
मुल्लाओं की फौज ने तुम्हे
इस्लाम की अफीम में भरमाये रखा
जिन्हें उलेमा समझ पोसते रहे
उन्होंने ही तुम्हे
पाखण्डों के जंजाल में उलझाए रखा
मजहबी भ्रमजाल में फंसे तुम
अपनी जहालत को खुदा कहते रहे
और जो तुम्हें आईना दिखाये
उसका सर तन से जुदा करते रहे
इसलिए
ऐ मुसलमानों
तुम आज इतने लाचार हो
मजूदा हालात के लिए
तुम खुद भी जिम्मेदार हो

तुम नही जान पाये की
तुम्हारी बर्बादियों का गुनहगार कौन है
तुम नही समझ पाये की
तुम्हारे आज के हालात के लिए कुसूरवार कौन है
तुम मरने के बाद के किस्सों पर झूमते रहे
लेकिन जीने का तरीका न सीख पाये
जन्नत के हवाई फलसफों में खोये रहे
लेकिन
जमीन पर रहने का सलीका न सीख पाये
इसलिए
ऐ मुसलमानों
तुम आज इतने लाचार हो
मजूदा हालात के लिए
तुम खुद भी जिम्मेदार हो

तुम नमाज कायम करने की फिराक में लगे रहे
लेकिन समाज कायम करना भूल गये
सफों को दुरुस्त करने में लगे रहे
लेकिन कौम को दुरुस्त करना भूल गये
तुम्हारी अकलियत की बेवकूफियों के जरिये
दूसरी अक्सरियतें परेशान होती रहीं
और बर्बाद कौम की कीमती ईंटों से
तुम्हारी मस्जिदें आलीशान होतीं रहीं
इसलिए
ऐ मुसलमानों
तुम आज इतने लाचार हो
मजूदा हालात के लिए
तुम खुद भी जिम्मेदार हो

साइंस के दौर में भी तुम
मदरसों की भीड़ बढ़ाते चले गये
इन मदरसों के खैराती इल्म से
अपनी ही
पीढ़ियों को जाहिल बनाते चले गये
फिर इन्ही जाहिलों की जमात से तुम
मुल्लाओं की नस्लें बढ़ाते चले गए

आबादी बढ़ी जरूरतें बढ़ी
चाहतें और हसरतें बढ़ीं
तकनीक बढ़ी विज्ञान बढ़ा
लेकिन तुम्हारी बुद्धि
1400 साल पीछे ही रहे
दाढ़ी बढ़ी लबादे बढ़े
मस्जिदें बढ़ीं मदरसे बढ़े
इस्लाम के जाली पर्चे बढ़े
आमदनी घटी खर्चे बढ़े

लेकिन वक्त के साथ
तुम्हारी अक्ल नही बढ़ पाई
मस्जिदों की मीनारें
ऊंची हुईं
मदरसों की दीवारें बड़ी हुई
मजारों की चादरें
कीमती हुईं
हाजियों की कतारें लम्बी हुईं
लेकिन
तुम्हारी दौड़
मस्जिद से आगे न बढ़ पाई
और तुम्हारा पजामा
टखनों से थोड़ा ऊपर ही रहा
इसलिए
ऐ मुसलमानों
तुम आज इतने लाचार हो
मजूदा हालात के लिए
तुम खुद भी जिम्मेदार हो

तीस दिन भूखे रहकर
पांच वक्त नाक रगड़कर
सऊदी को धनवान बना कर
जकात की खैरात बांटकर
तुमने क्या हासिल कर लिया ?
कुछ भी तो नही

बच्चियों को कुरान रटाकर
बेटों को अरबी पढ़ाकर
बुद्धि को बंधक बनाकर
मुल्लाओं की जमात बढ़ाकर
तुमने क्या हासिल कर लिया ?
कुछ भी तो नही

इसलिए
ऐ मुसलमानों
तुम आज इतने लाचार हो
मजूदा हालात के लिए
तुम खुद भी जिम्मेदार हो

तुम्हारी जरूरतें
दुनिया के साथ कदम मिलाकर नही
जलसे और जुलूस से पूरी होती हैं
इसलिए
इज्तेमा और हुजूम तुम्हारे लिए
बेहद जरूरी होते हैं

कुर्बानी के बकरों की कीमते और
कुर्बान होने वाले बकरों की तादाद से
तुम एक दूसरे की हैसियत नापते हो

कौन कितना नमाजी
इस बात से तुम
एक दूसरे की कैफियत जानते हो

घर में खाना है की नही
चिल्ले पर जरूर जाओगे
लौटकर भूखे बच्चों को
परहेजगारी के किस्से सुनाओगे
वो कहें की अब्बा
घर में कुछ खाने को नही
तो उन्हें जन्नत के मेवे दिखाओगे
खैरात मांग कर जकात दोगे
कर्ज लेकर हज करोगे
इसलिए
ऐ मुसलमानों
तुम आज इतने लाचार हो
मजूदा हालात के लिए
तुम खुद भी जिम्मेदार हो

झूठी हदीसों पर लम्बी तकरीरें
शरीयत की मनमाफिक तफसीरें
जहालत के कदमों तले रौंदी जाती
बदहवास कौम की बदहाल तस्वीरें
कुरान की झूठी आयतों के नाम पर
तबाह होती नस्लें और उनकी तक़दीरें
कौम की तरक्की को रोकती
फिक्र और फर्ज की लम्बी जंजीरें

देवबन्दी बरेलवी शिया या कादयान
अहले सुन्नत वहाबी या अहले कुरान
72 फिरकों में बंटे हैं मुसलमान
इनमे किसका दुरुस्त है ईमान ?
यह कौन तय करेगा ?

यह कौन तय करेगा की
हदीसों में लिखी बकवासें सही हैं
कुरान में लिखी अफवाहें सही हैं

इस बात की गारंटी कौन लेगा की
मरने के बाद इंसाफ होगा
आख़िरत में हिसाब होगा

यह कौन साबित करेगा की
इस्लाम ही सच्चा दीन है और
आपका अल्लाह रब्बुलालमिन है

बदलना चाहते हो खुद को
तो दूर करो मानसिक विकारों को
छोड़ दो दकियानूसी विचारों को
सोचो समझो और तर्क करो
मानवता के लिए हार्डवर्क करो

वक्त के साथ चलो पीछे नही आगे बढ़ो

जिन्हें ढूंढने में तबाह हुई हजारों पीढियां
खोजो मत वो लापता जन्नत की सीढियां

जो नही है उसके लिए मरना छोड़ो
जो है उसके लिए जीना सीखो

यही असली जिंदगी है
बाकी सब वैचारिक गन्दगी है.

-शकील प्रेम

केदारनाथ अग्रवाल

 इसी जन्म में, 

इस जीवन में, 

हमको तुमको मान मिलेगा। 

गीतों की खेती करने को, 

पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा। 


क्लेश जहाँ है, 

फूल खिलेगा, 

हमको तुमको ज्ञान मिलेगा। 

फूलों की खेती करने को, 

पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा। 


दीप बुझे हैं 

जिन आँखों के, 

उन आँखों को ज्ञान मिलेगा। 

विद्या की खेती करने को, 

पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा। 


मैं कहता हूँ, 

फिर कहता हूँ, 

हमको तुमको प्राण मिलेगा। 

मोरों-सा नर्तन करने को, 

पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा। 


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....केदारनाथ अग्रवाल


नवगीत मेरी दृष्टि में

 

          साठ के दशक में हिन्दी साहित्य में जब कविता के बरक्स  'नयी कविता' का आंदोलन चला, जिसमें लिजलिजी भावुकताओं, रूमानी कल्पनाओं के स्थान पर दबे-कुचले मानव की मुक्ति संबधित विचारों के पोषण की बात की गयी, तब छांदस-कविता में भी कथ्य को हृदय से मस्तिष्क की ओर ले चलने की बात उठी, जिसकी अगुवाई गीतों ने की। पारंपरिक गीतों से अलग इन गीतों की संज्ञा अगीत, प्रगीत, जनगीत, अनुगीत जैसे नामों से विचरते हुए राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा संपादित  'गीतांगिनी' के सन् 1958 में प्रकाशनोपरान्त ' नवगीत' नाम से सर्वस्वीकृत व सर्वप्रिय हो गयी। जिस प्रकार कविता को नयी कविता कहकर उसे एक नयी पहचान दी गयी थी, उसी प्रकार गीतों को भी आधुनिक समय-सापेक्ष विचारों से लैस रखने का आग्रह रखा गया और नवगीत का नव प्रत्यय इन प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करने में सर्वथा समर्थ पाया गया। नव शब्द की एक विशेषता यह भी है कि हर युग में परिवर्तन के नवीन आयामों को इस शब्द में समेटा जा सकता है। इस नवगीत आंदोलन से नयी कविता के पैरोकारों को एक जवाब भी दिया गया जो स्वयं छन्द लिखने में असमर्थ होने के कारण गीतों पर आधुनिक समय की विसंगतियों-विद्रूपताओं को व्यक्त कर पाने में असमर्थ होने का आरोप लगाते थे एवं भारतीयता की अवहेलना कर केवल आयातित बौद्धिकता के सहारे अपना व्यापार चलाने का प्रयत्न कर रहे थे।
          
         नवगीत वस्तुत: संवेदनात्मक ज्ञान के स्थान पर ज्ञानात्मक संवेदना का पक्षधर है। वरिष्ठ समालोचक नचिकेता के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि ' गीतों की वैचारिक यात्रा ही नवगीत है'। अग्रगण्य नवगीत-कवि देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी नवगीत की इसी प्रवृत्ति की ओर संकेत करती हैं।

स्वप्नजीवी गीत
सत्यंवद हुए,
आत्मने पद थे
परस्मैपद हुए।

संक्षेप में नवगीत को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं। "गीत के धरातल पर खड़ी वह रचना, जो अपनी समय-सापेक्ष नवता (वैचारिक, भाषायिक व शैल्पिक) से संपृक्त हो तथा संक्षिप्ति, अन्विति व बिम्बधर्मिता का सम्यक निर्वहन करती हो,  नवगीत है"।

पाश्चात्य-समालोचक थियोडोर अडोर्नो का कथन है ' गीत मानव-सभ्यता की धूप घड़ी है।' कहने का तात्पर्य यही है कि गीत मानव-सभ्यता के साथ-साथ पली-पुसी विधा है। मानव की विकास-यात्रा में गीत भी साथ-साथ चलते रहे हैं। भारतीय परंपरा की बात करें तो हम पायेंगे कि  शिशु-जन्म से लेकर मुण्डन-छेदन आदि प्रत्येक अवसर  के गीत  हमारे लोक जीवन में आदिकाल से पाये जाते हैं। ऋतु आधारित गीत भी जनमन में एक युग से बसे हुए हैं। बड़ी बात यह है कि फिल्मी ग्लैमर के इस चकाचौंध भरे वर्तमान समय में भी ये गीत प्रासंगिक व लोकप्रिय बने हुए हैं। सोहर, कजरी, चैता, बन्ना-गौना आदि इसके सम्पन्न उदाहरण हैं।
    नवगीत आधुनिक विचारों से लबरेज अवश्य है पर उसकी जड़ें गहराई से भारतीयता से जुड़ी हुई हैं। नवगीत भारतीय संस्कृति का विरोधी नहीं है, वरन् वह इसी से अपना खाद-पानी ग्रहण करता है। यही वह विधा है जो भारतीय छंद-परंपरा को आत्मसात कर आगे बढ़ती है और जो भारतीय जन मन के सरोकारों को सम्पूर्ण अपनत्व के साथ अभिव्यक्त कर सकने के साथ वैश्विक सन्दर्भों को भी एक मानवीय दृष्टि प्रदान करने में सक्षम है। भारतीयता व भारतीय दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति नवगीत में ही संभव है क्योंकि यही वह विधा है जिसके पास आधुनिक-वैज्ञानिक सोच के साथ तरल, प्रयोगशील समर्थ पारम्परिक छांदस कलेवर भी है।
          घर-परिवार, खेत-खलिहान, आपसी संबन्ध,  सामाजिक सरोकार, राष्ट्रीय-अन्तरर्राष्ट्रीय परिघटनाएँ व विसंगतियाँ सदैव एक उत्प्रेरक का कार्य करती हैं। यही परिप्रेक्ष्य मेरे भीतर के नवगीतकार को नवगीत-सृजन हेतु बाध्य करते रहे हैं।
          नवगीत अपने समय के प्रति सर्वाधिक सजग व निष्ठावान होने के कारण ही हिन्दी कविता की सबसे जीवन्त विधा बन सकी है। जिस प्रकार नवगीत ठेठ गाँव-देहातों के अन्तर्मन तक अपना प्रसार करने में सफल हुआ है,  पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि आने वाला दौर नवगीत का है। प्रख्यात नवगीतकार केदारनाथ अग्रवाल ने कभी कहा ही था।

इसी जन्म में, इस जीवन में,
हमको तुमको मान मिलेगा।
गीतों की खेती करने को,
पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा।

-रविशंकर मिश्र

नालायक

 


पहला व्यक्ति- क्या बताऊँ यार, बेटा नालायक निकल गया।

दूसरा व्यक्ति- क्या हो गया भाई, ऐसा क्या कर दिया बेटे ने।

पहला व्यक्ति-  कह रहा हूँ बहू को जलाकर मार डालो, मगर वो नालायक मेरी सुनता ही नहीं।

Sunday, April 24, 2011

upar ham kaise uthen

ऊपर हम कैसे उठें

ऊपर हम कैसे उठें  
टूटी हैं सीढियाँ
पीढा भर जमीन को
लड़ीं कई पीढियां

बैल बिके खेत बिके 
और बिके बर्तन 
किन्तु सोच में नहीं 
आया परिवर्तन 
अमन चैन की फसल
चाट गयीं टिड्डियाँ

थाना-कचहरी 
कुछ भी न छूटा है 
वजह मात्र इतनी है 
गड़ा एक खूंटा है 
खूंटे ने दिलों में भी 
गाड़ी हैं खूँटियाँ 

गावों के आदमी 
भी अजीब दीखे हैं 
दुखी देख सुखी हुए 
सुखी देख सूखे हैं 
तोड़ दी समाज ने 
रीढ़ों की हड्डियाँ  

Monday, August 2, 2010

ek inka bachpana hai

एक इनका बचपना है
एक बचपन था हमारा

थे बहुत पापड़ कि हम
दिन रात जिनको बेलते थे
हम खिलौनों से नहीं
हमसे खिलौने खेलते थे
शेर हाथी दोस्तों के
तोड़ते थे दिल हमारा

एक इनका बचपना है
एक बचपन tha हमारा